कॉमिक्स के समकालीन: कुछ अलग यादें भाग –३ (Contemporary to Comics: Different Aspect & Memories Part – 3)
Advait Avinash Sowale [अद्वैत अविनाश सोवले (मराठी ‘सोवळे’)]: अद्वैत पुणे के रहनेवाले है । उनका बचपन विदर्भ मे गुजरा। माता पिता शिक्षा के क्षेत्र मे कार्यरत होने की वजह से बचपन से ही उन्हे पढ़ने और लिखने मे विशेष रुचि रही है। घर मे बचपन से ही किताबों का मेला रहता इसकी वजह से सिर्फ मराठी ही नहीं बल्कि हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य मे भी उनकी रुचि बढ़ती रही। अद्वैत ने रसायनशास्त्र मे स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की है। साहित्य मे रुचि होने के कारण उन्होने अंग्रेजी साहित्य मे स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। उनके मराठी लेख और कवितायें काफी पत्रिकाओं मे प्रकाशित हो चुकी है। उनको सूचना प्रौद्योगीकी संबधित लेख और ब्लॉग आंतरराष्ट्रीय माध्यमों मे प्रकाशित हो चुके है। पुणे मेट्रो के लिए घोष वाक्य प्रतियोगिता, विज्ञान वर्ग पहेली निर्मिति प्रतियोगिता उन्होने जीती है। पिंपरी चिंचवड स्थित रामकृष्ण मोरे नाट्यगृह के रंगमच के ऊपर उन्होने लिखा हुआ सुभाषित नक्काशीत किया गया है। फिलहाल वो पुणे एक सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी मे संगणक प्रणाली गुणवत्ता विश्लेषक के पद पर कार्यरत है।
कॉमिक्स के समकालीन: कुछ अलग यादें भाग –३ (Contemporary to Comics: Different Aspect & Memories Part – 3)
कॉमिक्सके समकालीन के पहले और दूसरे भाग मे हमने विभिन्न विषयों की पत्रिकाओं के बारे मे बात की। इस तीसरे और अंतिम भाग मे हम तीन अलग अलग विषयों के प्रकाशनों की बात करेंगे।
पढ़ें – कॉमिक्स के समकालीन: विभिन्न पहलू और यादें भाग – 1 और कॉमिक्स के समकालीन: विभिन्न पहलू और यादें भाग – 2
आज से तीस से चालीस साल पहले बहुत ही कम क्षेत्रों मे महिलाओं की मौजूदगी हुआ करती थी। कई सरकारी, निजी क्षेत्रों मे महिलायें विभिन्न पदों पर आसीन थी मगर फिर भी स्त्री शिक्षा एवं स्त्री को नौकारियों मे कम ही प्राधान्य मिलता था और उनकी दुनिया घर संसार मे ही सिमटी रहती थी। बहोत ज्यादा क्षमता होते हुए भी तब समाज मे बाहर जाकर काम करने का प्रतिशत कम था। ऐसे मे घर के काम के अलावा वे अपने रुचि के कार्यों को घर मे ही रहकर सँजोती थी। कढ़ाई, बुनाई, व्यंजन बनाना, पढ़ना यदि बातें वे करती थी। ऐसे मे उनको बदलती दुनिया से पहचान करवा थी पत्रिकाएं। स्त्री पत्रिकाओं की एक पूरी अलग दुनिया थी। आज सामाजिक माध्यम और टीवी पर चलने वाले पारिवारिक धारावाहिक तब नहीं थे। तो कथा, कविता, समाचार, स्त्रियों के आरोग्य से लेकर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित स्तंभ ये सब देकर केवल घरेलू ही नहीं बल्कि नौकरी पेशा महिलाओं के लिए ज्ञान और खबरों का पिटारा लाती थी ये पत्रिकाएं।
गृहशोभा, मेरी सहेली, गृहलक्ष्मी, मुक्ता, सखी, सरिता, बिंदिया, वनिता, सुमन सौरभ, वुमन ऑन टॉप, होम मेकर, आदि पत्रिकाएँ हैं जो हमने अपने माँ, मासी, चाची, दीदी और उनकी सहेलियों को पढ़ते देखी हैं। आज भी ये पत्रिकाएं खासी प्रसिद्ध हैं और प्रकाशित होती हैं। इनमे के स्तंभ जैसे संजीवनी, सौन्दर्य, रसोई से काफी लोकप्रिय थे। बदलते समय के साथ ऑनलाइन विडीयोज मे व्यंजनों की कृतियाँ दिखाई जाने लगी तो पढ़कर रसोई बनाने की आदत भी कम होती गई। फिर भी इनमे दिए गए व्यंजनों को, मेहंदी और केश रचनाओं को, सिलाई, बुनाई और कढ़ाई के नए तरीकों को समस्त महिला वर्गों ने करके देखा हैं। इन पत्रिकाओं का और स्त्रियों का एक अलग ही रिश्ता बना था। आज भी दुकानों के बाहर उपरोक्त पत्रिकाएँ आपको आसानी से मिल जाएंगी।
अब जिस साहित्य कृति की मैं बात कर रहा हूँ वो पत्रिका इस विभाग मे नहीं आती मगर जब हम कॉमिक्स के समकालीन प्रकाशनों की बात करे और ये छूट जाए तो अन्याय होगा। आज सफर मे हम मोबाइल, टैब और लैपटॉप लेकर घूमते हैं। उस व्यक्त ये कुछ नहीं होता था। रेल या बस का कोई भी लंबा सफर हो। या घर मे भी सोते व्यक्त कुछ पढ़ने के लिए चाहिए हो जो दिन भर की थकान को दूर कर दे तो उसका जवाब था पॉकेट बुक्स। जी हाँ पॉकेट बुक्स!! ये दरअसल उपन्यास ही थे मगर ये पॉकेट बुक्स नाम से ही ज्यादा प्रसिद्ध थे। अगर इनके बारे मे लिखने बैठे तो एक उपन्यास ही लिखना पड़ेगा मगर यहाँ पर कुछ प्रसिद्ध लेखक तथा उनके उपन्यास के नाम ही दे रहा हूँ।
इनमे सबसे प्रसिद्ध नाम हैं “सुरेन्द्र मोहन पाठक” । इनका हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र मे बहोत बड़ा एवं अहम योगदान हैं। इन्होंने सुनील, विमल जैसे नायकों को केंद्र मे रखकर कई उपन्यास लिखे हैं। पुराने गुनाह नये गुनाहगार, होटल में खून, हार-जीत, किस्मत का खेल, आखिरी कोशिश, खतरे की घंटी और कई हैं। १९६३ से शुरू हुआ उनका सफर अब भी अनवरत चल रहा हैं और वर्ष २०१९ मे उनके लिखित कुछ उपन्यास प्रकाशित हुए थे।
इनके साथ ‘वेद प्रकाश शर्मा’, ‘वेद प्रकाश कंबोज’, ‘रितुराज’, ‘विनय प्रभाकर’, सूरज, राजहंस, मोहन चौधरी, जयंत कुशवाहा, कुमार कश्यप ये और भी काफी नाम हैं। मुझे यकीन हैं के पाठकों ने वर्दी वाला गुंडा, ऊंचे लोग, साजिश, लाल सुरंग के कैदी, बगावत, प्रतिशोध, अमानत, अधूरी सुहागन, इत्यादि उपन्यास इन रेल तथा बस स्थानको पर की दुकानों पर देखे होंगे। जैसे इनके नाम फिल्मी नाम लगते और इनकी कथाएं भी काफी मनोरंजक होती थीं। ये सफर के एक अच्छे साथी हुआ करते थे। एक नाम लिए बिना मै उपन्यास के विषय को खत्म नहीं कर सकता और वो नाम हैं ‘जेम्स हेडली चेज़्‘। वैसे ये थे तो अंग्रेजी लेखक मगर इनके लगभग सभी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद हो चुका हैं। चोर हसीना, आखरी दांव, खूनी सुंदरी आदि इनके अनुवादित उपन्यासों के नाम हैं। उपन्यासों के मुखपृष्ट पर मुद्रित चित्रों की वजह से ये हमेशा चर्चा मे रहे हैं।
ऐसे ही कुछ कहानियों की पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुआ करती थी जिसमे विशेष लोकप्रिय थी मनोहर कहानिया, सत्यकथा, आदि। उस व्यक्त वयस्कों के लिए भी कुछ उत्तेजनात्मक कथाओं की भी पत्रिकाएं आती थी। उसमे सबसे लोकप्रिय नाम था दफा ३०२।
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हमने इस श्रृंखला की शुरुवात की थी फिल्मों से संबंधित पत्रिकाओं से और इस श्रृंखला की आखरी कड़ी भी फिल्मों से संबंधित हैं। आजकल हमे न सिर्फ फिल्मी गानों के बोल याने गीतों के शब्द ही ऑनलाइन मिल जाते हैं बल्कि उन गानों की धुने भी आसानी से मिल जाती हैं जिसे ‘कराओके’ कहते हैं। इसकी मदद से गायक, शौकीन गायक तथा अप्रवीण गायक अपने आवाज मे गानों को ध्वनिमुद्रित कर सकते हैं। मगर पहले ऐसा नहीं था। तो तब हिन्दी फिल्मी गानों के बोलों की और उसके सरगम की किताबें मिलती थी। अप्रवीण तथा शौकीन गायक इन किताबों के खरीदार रहते थे। सफर के समय इन किताबों से गीतों को गाने का अभ्यास वो करते। वैसे आज भी ये किताबें मिलती हैं मगर १९८० से १९९० – ९५ तक का दौर था तब इन किताबों को खासी मांग थी। इन किताबों को अलग अलग संग्रहीत कर प्रकाशित किया जाता जैसे या तो एक वर्ष मे प्रकाशित फिल्मों के गीतों के बोल या फिर किसी विशेष गायक, गायिका द्वारा गए गए या तो एक संगीतकार द्वारा संगीत दिए गए। जैसे वर्ष १९८३ मे प्रदर्शित फिल्मी गीतों के बोलों की पुस्तिका मे मासूम, अगर तुम ना होते, बेताब, अवतार, सौतन, अर्पण, एक जान हैं हम, आदि। मगर आज ऐसी कोई किताबें करीब करीब प्रकाशित होती ही नहीं हैं। आजकल सबकुछ इंटरनेट पर मिल जाता हैं।
तो हमने देखा के कॉमिक्स के साथ साथ कई और पत्रिकाएं तथा किताबें हमारे जीवन का हिस्सा रह चुके हैं। ये सब समय के प्रवाह के साथ कही खो गए, लुप्त हो गए मगर हमारी यादों के गलियारों मे अभी भी कही न कही छुपे पड़े हैं। इन तीनों भागों मे दिए हुए प्रकाशनों के अलावा और भी कई पत्रिकाएँ, द्वि मासिक, त्रै मासिक, षाण्मासिक तथा वार्षिकांक प्रकाशित होते रहे हैं मगर कुछ जल्दी या कुछ समय चलकर उनका प्रकाशन बंद हो गया। बचपन मे हमने शायद ये पढ़ें हो या न पढ़ें हो मगर दुकानों पर दार्शनिक मे रखे हुए इन प्रकाशनों ने हमारे बाल मन की रुचि को हमेशा उत्साहित किया हैं और आज भी वो रुचि ही हमे नए साहित्य पढ़ने के लिए बढ़ावा देती हैं।
मुझे यकीन हैं की कॉमिक्स के समकालीन : कुछ अलग यादें के तीनों भाग आपको पसंद आए होंगे। तो यहाँ पर मैन इस शृंखला को समाप्त करता हूँ। फिर मिलूँगा एक नया विषय लेकर।
अद्वैत के लेख पहले भी कॉमिक्स बाईट मे प्रकाशित हो चुके है ।
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