आत्मा के चोर – सुपर कमांडो ध्रुव (Aatma Ke Chor – Super Commando Dhruva)
वर्ष 1993 को कॉमिक्स जगत में बड़े बदलाव हो रहे थे विशेषकर राज कॉमिक्स की अगर बात की जाए तो!! मुंबई का रखवाला यानि ‘डोगा’ का पदार्पण भी वर्ष 1993 को ही हुआ था और आते ही ‘कर्फ्यू’ नामक कॉमिक्स से उसने पाठकों को अपना दीवाना बना दिया था। नब्बें के दौर में कॉमिक्स विशेषांक का शबाब अपने उफान पर था, पाठकों का मनोरंजन कई कॉमिक्स प्रकाशक कर रहे थे लेकिन शायद राज कॉमिक्स अपने सामग्री के कारण लोगों की पसंदीदा प्रकाशन बनी हुई थी या कहूँ उसके नायकों का धरातल के करीब होना पाठकों को पसंद आ रहा था। उनकी कहानियाँ आपके समाज का आईना प्रतीत होती थी एवं नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव में बच्चों और युवाओं को बुराईयों से लड़ते नायकों में अपना ही प्रतिबिंब नजर आता था।
शहडोल जिले के छोटे से क़स्बे अमलाई में बस आपको कोयला खदानें, ओरियंट पेपर मिल्स और सोडा फैक्ट्री जैसे उद्यम देखने को मिलेंगे, चचाई का ताप विदुयत गृह (पॉवर हाउस) और शहडोल का मिथेन गैस प्लांट (रिलायंस) इसके गुरुत्व को और बढ़ा देते है। अमरकंटक के घने जंगलों में आपको प्रकृति का अद्भुद सौंदर्य देखने को मिलता है और नर्मदा कुंड जैसे महान पवित्र स्थान पर आप पावनता के उद्गम में डुबकी लगा कर खुद की उर्जा को एक बार फिर से प्रस्फुटित कर पाते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली तक जाती उत्कल एक्सप्रेस आज भी उसी द्रुतगति से दौड़ती है जैसे वो पहले चलती थी। इस कारण कॉमिक्स के आवाजाही की सुगमता वहां नब्बें के दौर में लगातार बढ़ती ही जा रही थी। बीच के बड़े जंक्शन जबलपुर एवं कटनी पर अन्य प्रकाशनों की कॉमिक्स पहले ही खप जाती थी लेकिन भला हो डायमंड कॉमिक्स और राज कॉमिक्स का जिनके दर्शन हमारे गृहनगर तक जरुर होते थे और कुछ बड़े दुकानों में मनोज कॉमिक्स भी मिल जाया करती थी।
यहाँ पर समय की दोहरी मार थी, प्रकाशन के तुरंत बाद कॉमिक्स का मिलना एक लक्ज़री माना जाता था। पेपर डालने वाले असलम भाई से अक्सर मैं पूछ लिया करता की आप राज कॉमिक्स क्यों नहीं लाते जबकि आपकी धनपुरी नामक जगह में उनकी खुद की लाइब्रेरी थीं!! चंपक, नंदन, सुमन सौरभ, बालहंस तो वो लेकर आते ही थे लेकिन खुदा गवाह है की उन्होंने मुझे कभी राज कॉमिक्स, मनोज कॉमिक्स या डायमंड कॉमिक्स नहीं ला कर दी और जो भी लेकर आएं वो किसी अन्य प्रकाशन की ही निकलती जैसे राधा कॉमिक्स या कोई पुरानी इंद्रजाल कॉमिक्स।
आत्मा के चोर कॉमिक्स के विज्ञापन राज कॉमिक्स के कॉमिकों के पिछले पृष्ठों पर कई दिनों से आ रहे थे। मैं कई जनरल कॉमिक्स पर इसके विज्ञापन देख चुका था और यह कहना कोई बड़ी बात नहीं होगी की पहले के कॉमिक बुक आर्टिस्टों का एक अलग ही प्रशंसक वर्ग है जो उनके चित्रकारी का दीवाना था, है और हमेशा ही रहेगा। इन विज्ञापनों की कशिश आपको इनसे दूर नहीं जाने देंगी और राज कॉमिक्स का मनमोहक प्रतुस्ती करण आपको मंत्रमुग्ध कर देता है। उस दौर में इन्हें देखकर पैसों की जुगत किसने नहीं लगाई होंगी, लाइब्रेरी से लाकर पढ़ने के लिए भी 50 चक्कर लगते थे; आज युग में यह गणित शायद लोगों को हास्य जैसा प्रतीत होगा लेकिन यह वास्तविक संघर्ष है उस दौर के कॉमिक्स प्रेमियों का जिसे आज भी वह महसूस कर सकते है इन पंक्तियों को पढ़ते हुए। अंग्रेजी के शब्द ‘नोस्टाल्जिया’ का सही अर्थ इसे पढ़कर आसानी से समझ सकते है वो लोग जिन्होंने कभी इस विज्ञापन को देखकर इसे खरीदने या पढ़ने के सपने बुने थे।
कॉमिक्स पढ़ें और इन्हें घर बैठे प्राप्त भी करें – राज कॉमिक्स
खैर मेरा सपना पूरा नहीं हो रहा था क्योंकि यह विशेषांक हमारे यहाँ कहीं भी उपलब्ध नहीं था। दादी या पिताजी के साथ अगर किसी दुकान में जाना हुआ तो नज़रें बस लटकती कॉमिकों पर होती लेकिन आत्मा के चोर मुझे कहीं नहीं मिली। एक कॉमिक्स विशेषांक में 60 पृष्ठ होते थे और दूसरा उसके विज्ञापन पृष्ठ बोनस, भला कौन इन्हें अपने हाँथों से जाने देना चाहेगा पर हर मोड़ बस असफलता ही हाँथ लग रही थी। समय बीता और आत्मा के चोर पढ़ने का मेरा सपना अधूरा ही रह गया।
आपको मैं अपने पिछले संस्मरणों में बता चुका हूँ की मेरे घर के सामने चौरसिया बंधु रहते थे लेकिन उनसे भी पहले वहां ‘गुप्ता अंकल’ रहा करते थे जिनके बेटे श्री सुधीर गुप्ता जी मेरे बड़े भाई जैसे थे और कॉमिक्स उनका भी पसंदीदा शगल हुआ करती थी। कॉमिक्स ने बड़े अच्छे मित्र दिए हैं चाहे वो बचपन के हों, किशोर अवस्था के या आज के फेसबुक वाले। इस साल मुझे क्रिकेट का नया बल्ला भी अपने भिलाई वाले मौसाजी से उपहार स्वरुप मिला था। “क्रिकेट और कॉमिक्स”, इनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है लेकिन भारत देश जहाँ “श्री सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का भगवान कहा जाता है”, वहां आपको हर घर में कोई ना कोई इसका दीवाना मिल ही जाएगा हालाँकि उस वक़्त वो इतने प्रसिद्ध नहीं थे और श्री कपिल देव को आप उस दौर में क्रिकेट के दूत के रूप में देख सकते थे।
क्रिकेट और कॉमिक्स का जुड़ाव बस मनोरंजन से ही है, आप कॉमिक्स पढ़ सकते हैं और क्रिकेट खेल कर अपना समय भी व्यतीत कर सकते है, बस इसी कारण मैंने सुधीर भैया को जाकर हमारे साथ क्रिकेट खेलने का आग्रह किया। अपने घर की लकड़ी के रोशनदान से उन्होंने अपना चेहरा बाहर निकालते हुए मुझे घंटे भर बाद आने की हिदयात दी। जाते हुए मैंने उनसे पूछा अभी क्या आप व्यस्त हैं भैया? तो उन्होंने मुझे टरकाते हुए कहा की माताजी नई कॉमिक्स लेकर आई है मेरे लिए, बस वही पढ़ कर खेलने आता हूँ!! कॉमिक्स का नाम सुनते ही एक अलग ही खुशी मिलती थी जिसे कोई भी शब्द शायद ही किसी वाक्य में व्यक्त कर पाए। फिर भी उन्होंने मना कर दिया था मैं अपना मुहं लटका कर उनके घर से चल पड़ा।
सुधीर भैया उस ‘दिन’ खेलने नहीं आए। अगले दिन भी घर के सामने वाले मैदान में मैं उनका इंतजार कर रहा था लेकिन वो उस दिन भी नहीं आए। आखिरकार दो-तीन दिन बाद वह क्रिकेट खलने आए तो मेरा पहला सवाल उनसे यही रहा की उस दिन आप कौन सी कॉमिक्स पढ़ रहें थे? कौन से प्रकाशन की थी? राजा रानी वाली है या किसी नायक की? नई है या पुरानी? सुधीर भैया से मेरी अधीरता देखी नहीं गई और उन्होंने आहिस्ते से मेरे कानों में कहा “आत्मा के चोर”, डाइजेस्ट है सुपर कमांडो ध्रुव की लेकिन किसी को बताना मत वर्ना खेलने के बाद सब मेरे घर पर ही आ धमकेंगे। इसे कहते हैं ओउम् शांति ओउम् फिल्म का प्रसिद्ध संवाद – “अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुम से मिलाने में लग जाती है“।
अब क्रिकेट में मन नहीं लग रहा था आँखों के सामने “आत्मा के चोर” के विज्ञापन और उसके किरदार घूम रहे थे। मैं सही कहूँ तो पहले ये मुझे कोई भूतहा कहानी लगी थी जिसमें हमारा नायक ध्रुव कुछ अनोखे प्राणियों से लड़ता दिखाई पड़ रहा था। श्री प्रताप मुल्लिक जी और श्री अनुपम सिन्हा जी ने विज्ञापनों में कुछ ऐसा समां बांधा था की बस किसी भी हालत में एक 9 वर्षीय बालक को इसे पढ़ना ही था, हालाँकि तब मुझे हिंदी पढ़ना ठीक ठीक ही आती थीं और शायद इसके पीछे भी कॉमिक्स का ही बड़ा योगदान कहा जाएगा।
काफी मान-मनौवल के बाद शाम को सुधीर भैया मुझे कॉमिक्स देने को राजी हो गए और मैं खेल के बाद उनके घर चल पड़ा। जैसे चक दे इंडिया में शाहरुख़ खान आखिर में 70 मिनट वाला संवाद कहता है ठीक वैसे ही सुधीर भैया ने भी मुझे 1 दिन का समय दिया और डाइजेस्ट को पढ़ कर उसे सकुशल लौटने का वादा भी लिया। उस दौर में कॉमिक्स लोगों के घरों से जाती तो थी लेकिन वापस लौट कर कभी-कभार ही आ पाती थी। “आत्मा के चोर” मेरे हाथ में थी और प्रताप जी का बनाया सुंदर आवरण मुझे उसे पढ़ने को लालयित कर रहा था और घर के गेट पर मम्मी जी मेरा इंतजार।
कौन कहता खुले आँखों से सपने पूरे नहीं होते या भगवान ने आपको कभी दर्शन नहीं दिए? होता सब है बस हम उसे पहचान नहीं पाते वर्ना हर कोई आज महाज्ञानी होकर घूम रहा होता। करवाता तो ईश्वर ही है, हम आप तो बस समयधारा के प्यादे है, कभी एक चाल मैं चलूँगा कभी कोई दूसरा लेकिन मंजिल सबकी एक ही है। शाम का अँधियारा क़स्बे को अपने आगोश में समेट रहा था लेकिन मेरी आँखे 100 वाट के बल्ब के मानिंद चमक रही थी जैसा ध्रुव तारा चमकता है दूर गगन में। कहानी बेमिसाल थी और अनुपम जी का चित्रांकन लाजवाब, मजा ही आ गया की बस क्या कहूँ, ‘अ मस्ट रीड‘ । इसका रिव्यु भी बहोत जल्द कॉमिक्स बाइट पर उपलब्ध होगा, आभार एवं धन्यवाद!!
** सुपर कमांडो ध्रुव (राज कॉमिक्स) – कृत श्री अनुपम सिन्हा जी **
Raj Comics| Chamatkari Bhokal Series | Collection of 8 Comics
बहुत शानदार लेख। आत्मा के चोर मैंने भी बहुत ढूंढी थी। इसके नाम ने ही जादू कर दिया था।
किताब काॅमिक्स में अलग ही सुकून है मित्र।