उपनिषद और पुराणों की पौराणिक कथाएं – “नारद मुनि स्त्री के रूप में”
मित्रों आप सभी का हमारे नए खंड में नमस्कार है। वैसे ही इस साल नन्हें सम्राट और नंदन जैसी पत्रिकाओं का बंद हो जाना अपने आप में एक बड़ी विडंबना है और बाल पाठकों के लिए ‘बाल साहित्य’ एवं कहानियों के दरवाजें बंद हो जाना बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। पर चिंता की कोई बात नहीं है आज से हम अपने “उपनिषद और पुराणों की पौराणिक कथाएं” के खंड में लेकर आएंगे कुछ ऐसी ही अनोखी कथाएं जिसे आप भी पढ़ सकते है और इन्हें बच्चों को सुनाकर सीख भी दें सकते है।
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“नारद मुनि स्त्री के रूप में”
यह कहानी आती है भागवत पुराण से जहाँ नारद मुनि ने एक स्त्री का रूप पाया था। हुआ कुछ यूँ की नारद मुनि और प्रभु श्री विष्णु एक नगर की गमन कर रहें थे। बीच राह में एक सरोवर दिखा तो नारद मुनि ने प्रभु से कहा – “प्रभु कंठ सूख रहें है, आज्ञा हो तो जलपान कर लूँ”। प्रभु ने उन्हें कहा बिलकुल लेकिन पहले आप स्नान आदि कर लें उसके बाद जलपान ग्रहण करें।
नारद जी बड़ी शीघ्रता में थे और प्रभु की बात ना मानते हुए उन्होंने सरोवर से बिना स्नान किए सीधे जल का पान कर लिया। लेकिन इस धृष्टता के कारण उनके रंग रूप में अमूल चूल बदलाव हुए और वह एक सुंदर नारी के रूप में बदल गए। जब उन्हें इस बदलाव का ज्ञात हुआ तब तक प्रभु वहां से प्रस्थान कर चुके थे।
कुछ समय पश्चात एक राजा उन्हें पसंद कर लेता है और जिससे उनकी शादी भी हो जाती है। समय अपनी गति से बढ़ता है और कई वर्ष बीत जाते है एवं उनके कुछ बच्चे भी हो जाते है। एक बार भयंकर बीमारी के कारण उनके बच्चे एवं महाराज चल बसते है। जब काफी विलाप प्रलाप करने के बाद उन्हें भूख लगती है तो वह एक फल उठा लेते है और उसे खाने ही वाले होते है की अचानक से एक साधू वहां प्रकट हो जाते है।
साधू – “हे स्त्री! क्या तुझे इस बात का भी स्मरण नहीं की जब घर में किसी की मृत्यु हुई हो तो बिना स्नान आदि किए बिना कुछ भी खाना वर्जित है”।
“क्षमा कीजिएगा महाराज, मैं अभी सरोवर में स्नान करके आती हूँ और उसके बाद ही इसे ग्रहण करुँगी”।
भूलवश वो फल नारद मुनि के हाथों में ही रह जाता है और जब वो सरोवर में डूबकी मरते है तो उनका शरीर अपने पुराने स्वरूप में बदल जाता है लेकिन उनका एक हाँथ सरोवर के बाहर था जिसने फल को थामा हुआ था इसलिए वह अभी भी स्त्री का ही था। तब प्रभु अपनी लीला दिखाते है और नारद जी उनका दूसरा हाँथ भी सरोवर में डूबाने को कहते है। जैसे ही वो अपना हाँथ बाहर निकलते है उनका वह हाँथ भी पहले जैसा हो जाता है।
अपना पुराना स्वरुप पाकर नारद मुनि बड़े खुश होते है और प्रभु का ह्रदय से धन्यवाद करते है। हुआ कुछ यूँ था की नारद मुनि को ‘अहंकार’ हो गया था पर प्रभु की माया में फंसकर उनका यह अहंकार टूट गया। अगर किसी के मन में अहंकार की भावना आ जाए तो उसकी प्रगति वहीँ समाप्त हो जाती है।
इस कहानी से एक सीख और मिलती है की किसी भी शुभ कार्य को स्वच्छता पूर्वक ही किया जाना चाहिए चाहे वो जल या भोजन ग्रहण करने जैसे नियमित कार्य ही क्यूँ ना हो।
सीख
हमें कभी अहंकार नहीं करना चाहिए और सदैव स्वछता का पालन करना चाहिए।
चित्र साभार: अमर चित्र कथा