नब्बें का दशक और कार्टून: द जंगल बुक (The Jungle Book)
“जंगल जंगल बात चली है पता चला है, भई चड्डी पहन कर फूल खिला है, फूल खिला है”. चाहे आपकी उम्र कुछ भी हो, इस गाने को सुनकर अपने मुख पर एक मुस्कान अवश्य आएगी, जैसे आप इस समय भी शायद इसे पढ़कर मुस्कुरा रहें हो. ये गाना एक टाइम मशीन है खासकर अस्सी और नब्बे के दशक में पैदा हुए बच्चों के लिए. इन शब्दों को सुनते ही आप यूँ पलक झपकते ही ‘मोगली और उसकी टोली’ का स्मरण करने लगते है क्यूंकि बात हो रही है – ‘द जंगल बुक (The Jungle Book)‘ नामक एनीमेशन धारावाहिक की.
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नब्बें का दशक, रविवार का दिन, सलोरा का कलर टीवी और डीडी नेशनल पर कार्टून के साथ नाश्ते में आलू के पराठें या गर्मागरम पोहे. आज जब सोचता हूँ तो लगता है उस बचपन को पकड़ना कितना मुश्किल है. क्या आज के लोग/बच्चे/युवा उसे महसूस कर पाएँगे. रविवार का क्या करना है! बचपन में इसकी समय सारणी शनिवार को स्कूल से आते ही बन जाती थी.
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सुबह ‘रंगोली’ के गानों से, फिर श्री कृष्णा से अधर्म पर धर्म की विजय का पाठ पढ़कर ठीक 10.00 बजे जंगल बुक का हम लोग इंतज़ार करते थे. सब के घरों तब टीवी नहीं हुआ करता था, कलर टीवी तो दूर की बात है. इस कारण मोहल्ले के मेरे कई मित्र घर पर डेरा जमा लेते थे. आधे घंटे के कार्यक्रम का जो मजा तब आता था आज शायद की किसी 3 घंटे के 3D फिल्म या वेब सीरीज में भी आएं (मार्वल की बात नहीं करूँगा, क्योंकि उसने वही बचपन का स्वाद तो दिया ही है खासकर एवेंजर्स में).
गाने से शुरुवात होती थी जिसका शीर्षक हम उपर पढ़ चुके है और उसके बाद हमें देखने को मिलती थी मोगली और उसके मित्रों को अनोखी कहानी. पूरा एपिसोड देखने के बाद दो-तीन घंटा क्रिकेट खेलो, फिर दोपहर को भोजन ग्रहण कर अपनी कोई भी मनपसंद कॉमिक्स पढ़ों, शाम को फिर मैदान पर मित्रों के साथ ‘स्टापू’ या ‘लाल ईट’ या ‘बित्ती’ जैसे अनोखे खेल खेलो और शाम को ज़ी टीवी के ‘डिज्नी ऑवर’ के संग एक सुखद ‘रविवार’ का अंत होता था.
द जंगल बुक (The Jungle Book)
‘द जंगल बुक’ के बारें में सभी जानते है. इसके जनक थे श्री ‘रुडयार्ड किपलिंग’ और भारत के पेंच अभयारण में उन्होंने ‘मोगली और उसके दोस्तों’ को ध्यान में रखकर इस कहानी को आकर दिया था. द जंगल बुक के उपर कई किताबें, खिलौने, कॉमिक्स, एनीमेशन, लाइव एक्शन फिल्म से लेकर ग्राफ़िक नॉवेल तक बन चुके है और इसके अधिकार फ़िलहाल ‘डिज्नी’ के पास सुरक्षित है.
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लेकिन अगर आप देखने जाएं तो पाएंगे की नब्बे के दशक के कार्टून से जो आपका जुड़ाव है वो शायद किसी अन्य माध्यम में आपको नज़र आएगा. गुलज़ार साहेब के अद्भुद शब्दों को श्री विशाल भरद्वाज जी ने क्या लयबद्ध किया और बच्चों की सुरीली आवाज़ों ने इस गीत को अमर बना दिया. ये एक कनेक्शन है और हाल में लॉकडाउन के दौरान जब ‘मोगली‘ का पुनः प्रसारण किया गया तो आज के वयस्क लोगों ने अपने बचपन को याद ज़रूर किया होगा.
मोगली के मित्र (Mowgli’s Friend)
मोगली के प्रथम बंधु या मित्र उसके भेड़िया मंडली के भाई थे जिनका नाम था ‘अकडू-पकडू’, इसके बाद ‘बघीरा’ का नाम आता है जो एक ‘ब्लैक पैंथर’ है, फिर ‘बलू भालू’ जो मोगली को अक्सर अपने पेट में बैठाकर नदी की सैर करवाता है या जंगल के बेहद गुस्सैल और विशालकाय अजगर ‘का’ का. इसके अलावा भी मोगली की माँ, भेड़िया फ़ौज का सरपंच और उसकी बेटी मोगली के अच्छे दोस्तों में शुमार होते है.
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Mowgli And His Friends
खलनायक (Villain)
मोगली की कहानी में कई खलनायक है और उसमे से ‘शेरखान’ नाम का बाघ मुख्य खलनायक है, वो भी इतना जबरदस्त की जब भी टीवी पर आता था बच्चों की हालत ख़राब हो जाती थी. अभिनेता नाना पाटेकर ने अपनी आवाज़ का ऐसा जादू चलाया की लोग शेरखान के अदा के कायल हो गए. उसका रवैया और प्रभाव ऐसा था की हम बस यही कामना करते की मोगली ताकतवर शेरखान के सामने ना पड़े कभी. इसमें ‘तबाकी’ नाम का लकड़बग्घा उसकी मदद करता और उसका साथ देते लाल मुहं के बंदरों की चपल फ़ौज.
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The Jungle Book
मोगली के हथियार (Weapons)
मोगली की दुनिया में उसे छोड़कर कर सभी अन्य किरदार वन्य जीव ही थे, काफी बाद में जब धारावाहिक का अंत नजदीक आया तब वहां पर ‘मेशुआ’ जिसे मोगली पसंद भी करता था का जिक्र होता है और वो अपने दादाजी के साथ निकट के गाँव में रहती थी, जहाँ मानवों को बस्ती बसाते दिखाया गया था. मोगली को भेड़ियों ने पाला था लेकिन उसके पास उन जैसे नाखून और दांत नहीं थे इसलिए वो एक विशेष प्रकार की लकड़ी का टुकड़ा जिसे आज सब ‘बुमररैंग’ भी कहते है का इस्तेमाल करता था. बाद में बाघ ‘शेरखान’ से लड़ने के लिए उसने चाकू का भी प्रयोग किया था.
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The Jungle Book
यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की मोगली और उसकी टोली का हम सभी पर बड़ा प्रभाव रहा है और आगे भी रहेगा. दूरदर्शन ने वाकई में हम भारतीयों को दूर के दर्शन करवाएं है जो आज के इंटरनेट युग के बच्चों को मालूम ही नहीं है. मेरा तो यही मानना है की तब ‘क्वालिटी कंटेंट’ आता था और आज बस ‘क्वांटिटी कंटेंट’ आता है. आज की तेज़ रफ़्तार जीवन में दो पल का सकून खोजती और अपने पुराने दिनों को याद कर चंद पल मुस्कुराती इस जिंदगी में आज भी ‘चड्डी पहन के फूल खिले ना खिले पर मन मस्तिष्क जरुर खिल जाता है‘, आभार – कॉमिक्स बाइट!!