आइवर यूशियल की कलम से: अंकुर और विज्ञान (डायमंड कॉमिक्स)
रवि लायटू (Ravi Laitu / Ivar Utial)
आज का खास लेख है बच्चों को विज्ञान का आशय समझाने वाले, गूढ़ विज्ञान को खेल खेल में बाल मन पर टंकित करने वाले और विज्ञान पर सैकड़ों लेख और किताबें लिखने वाले लोकप्रिय लेखक श्री “आइवर यूशियल” जी . इन्हें आप श्री “रवि लायटू” जी के नाम से भी जानते है. बच्चों के एक लोकप्रिय विज्ञान लेखक जिनका मुख्य उद्देश्य अपने स्वयं के तैयार किए गए चित्र और रेखाचित्रों के माध्यम से विज्ञान को बाल मन स्थानांतरित करना है। इन्होने बच्चों के लिए ढेर सारी किताबें लिखी जिसमे सबसे चर्चित “101 साइंस गेम्स” और “101 मैजिक ट्रिक्स” रही, गूगल पे या अमेज़न पर आप उनकी किताबों को सर्च कर सकते है. वो हमारे बचपन के शिक्षक, नायक और बाल जगत के लिविंग लीजेंड है जिन्होंने हमें बहुत कुछ सिखाया एवं प्रेरणा दी है.
अंकुर और विज्ञान
पूरी तरह तो ठीक से याद नहीं पर शायद अक्टूबर के यही शुरुआती दिन थे और वर्ष जहां तक मुझे याद है सन् ’85 था जब डायमंड कॉमिक्स के प्रकाशक नरेंद्र जी से पहली बार एकाएक भेंट हो गई थी l
यह वो दौर था जब मेरी ज्ञान-विज्ञान आधारित बाल-पुस्तकों ने न केवल देशभर में फैले विशाल बाज़ार में अपनी अच्छी ख़ासी पकड़ बनानी शुरू कर दी थी बल्कि ये बाल-पाठकों के नन्हें-नन्हें दिलों मे भी तबियत से उतरने लगी थीं हांलाकि तब तक ‘रवि लायटू’ पूरी तरह ‘आइवर यूशिएल’ में रूपांतरित नहीं हुआ था.
इसके कुछ समय बाद नरेंद्र जी से हुई दूसरी मुलाक़ात में ही जब उनकी ओर से मुझे कॉमिक्स बनाने का प्रस्ताव मिला तो मुझे ज़रा-सा भी अचरज नहीं हुआ क्योंकि मैं जानता था, उन्हें तब तक पता चल चुका था कि मैं लेखन के साथ चित्रांकन भी करता हूँ।
यह प्रस्ताव विशेष तौर पर ‘अंकुर‘ नामक मासिक पत्रिका के लिए था जो वे डायमंड कॉमिक्स के बैनर तले प्रकाशित करते थे जिसमें उनके भाई गुलशन जी का नाम संपादक के तौर पर रहता था। उनके इस प्रस्ताव में मेरी कोई रुचि नहीं थी, मैं तो बाल-साहित्य के क्षेत्र में बच्चों के बीच चीनी चढ़ी दवाई की तरह ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण सामग्री वितरित करने का विचार लेकर उतरा थाl वैसे भी जीवन का एक उद्देश्य रहा है कि….
अपनी फ़ितरत में नहीं है किसी के पीछे चलना
हम वो हैं जो रिवाजों की शुरुआत करते हैं….ll
….तो फिर ऐसे में कॉमिक्स पत्रिका में उसी ढर्रे का काम कौन-सी बड़ी चुनौती होता और बस इसी उद्देश्य से मैंने उनके सामने ‘अंकुर‘ के कुछ पृष्ठों पर अपनी तरह की सामग्री को परोसने की इच्छा ज़ाहिर कर दी जिसको उन्होंने बेहद अनमने भाव से इस शर्त पर स्वीकारा कि यदि तीन महीने में उनके बाल-पाठकों ने इसे नहीं स्वीकारा तो मुझे विज्ञापन के दर पर उन पृष्ठों की भरपाई करनी होगी और यह वास्तविक अर्थों में एक चुनौती थी जिसे स्वीकारने का अगर मैं साहस कर पाया तो उसका आधार था बच्चों का प्यार जो उस वक़्त तक अच्छी ख़ासी मात्रा में मुझे मिलना शुरू हो चुका थाl
मैं जानता हूँ कि उस समय की आर्थिक स्थिति के आधार पर मुझ जैसे फ्रीलांसर के लिए तीन महीनें तक किसी पत्रिका के चार पृष्ठों का विज्ञापन-दर के हिसाब से भुगतान करने की बात को स्वीकार लेना बहुत बड़े जोखिम का काम था पर कहते हैं न कि पृष्ठभूमि यदि सबल एवं सक्षम हो तो प्यादा भी बादशाह से सीधे मुख़ातिब हो सकता है और ऐसा ही हुआ मेरे साथ भीl
‘अंकुर‘ में अपने चार पृष्ठीय स्तम्भ “पिटारा” की निरंतरता अपने बाल-मित्रों के स्नेह के सहारे ऐसी चली कि तीन-साढ़े तीन साल बाद मैंने स्वयं इसे यह सोचकर विराम दिया कि एकरूपता लंबे समय के बाद नीरसता भी उत्पन्न कर सकती हैंl
कॉमिक्स की दीवानगी के बीच इसतरह के पृष्ठों का न सिर्फ़ अपने वजूद को बनाये व बचाये रखना सबके लिए आश्चर्यजनक सिद्ध हुआ वरन बाद में ‘मधु-मुस्कान‘ जैसी दूसरी कॉमिक्स पत्रिकाओं में भी इनका लंबे समय तक लगातार प्रकाशन इस तथ्य को ज़ाहिर कर गया कि यदि प्रस्तुति उपयुक्त हो तो बच्चे केवल मनोरंजक पठन सामग्री ही पसंद नहीं करते बल्कि उनकी रुचि ज्ञान-विज्ञान में भी समान रूप से होती हैl
और यह विचार केवल उस दौर पर ही लागू नहीं होता वरन आज के संदर्भ में भी यह पूरीतरह सत्य सिद्ध हो सकता है, ज़रूरत है तो बस वर्तमान पत्र-पत्रिकाओं को इस विचार की अहमियत समझने की l
– आइवर यूशिएल
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