मनु की ‘खरोंच’ से ‘राजनगर की तबाही’ तक!
वर्ष 1996, जैसा आप लोग जानते है इसे राज कॉमिक्स ने नागराज वर्ष के रूप में भी मनाया था और उसी वर्ष आई थी ‘राजनगर की तबाही’ जो की नागराज और ध्रुव का २इन१ विशेषांक था, लेकिन क्या आपको पता है की इस सेट के बाद में एक और धुआंधार कॉमिक्स प्रकाशित की गई थी जिसका नाम था ‘खरोंच’. ये दोनों कॉमिक्स मैंने 1 हफ्ते के अंदर ही खरीदी थी, लेकिन ‘खरोंच’ पहले खरीदी थी जबकि इसकी संख्या क्रमांक #68 है एवं ये ‘राजनगर की तबाही’ के बाद वाले सेट में आई थी और ‘राजनगर की तबाही’ का संख्या क्रमांक #67 है. राजनगर की तबाही का उस समय मुझे ना मिलना अच्छा ही कहा जायेगा क्योंकि उसके ‘रिप्लेसमेंट’ में मुझे मिली “मनु की खरोंच”.
कॉमिक्स बाइट फैक्ट्स में पढ़े – ‘राजनगर की तबाही’
हालाँकि ‘मनु’ जी के साथ मैं यहाँ श्री ‘हनीफ़ अजहर’ जी का नाम भी लेना जरुरी समझता हूँ क्योंकि इस बेमिसाल आर्टवर्क को एक दमदार कहानी की भी जरुरत थी और इस पैमाने पर ‘खरोंच’ बिलकुल फिट बैठती है, “तिरंगा और परमाणु” का ये लाजवाब मेल हमें राज कॉमिक्स के एक और गौरवशाली कॉमिक्स विशेषांक ‘खरोंच’ में देखने को मिला. इससे पहले मैंने तिरंगा की कोई कॉमिक्स नहीं पढ़ी थी लेकिन परमाणु को मैं अच्छे से पहचानता था – मैं उसकी कुछ जनरल कॉमिक्स और ‘कहर’ नामक विशेषांक पढ़ चुका था. ये कॉमिक्स मैंने जबलपुर से खरीदी थी और नीचे पेश है उसका संक्षिप्त संस्मरण.
मेरे पापा जबलपुर कोर्ट में हियरिंग के लिए निकलने वाले थे, उनके कार्यालय का कुछ विशेष काम था और वकील बाबू से मिलकर उन्हें कुछ कागज़ात भी देने थे, मेरी गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थी. पिताजी अक्सर ‘टूर’ पर जाया करते – जबलपुर, कटनी, रीवा, सतना, भोपाल और बिलासपुर इन्हें हर महीने ऑफिस के कार्य से जाना ही पड़ता (बिलासपुर को छोड़ बाकी शहर मध्य प्रदेश में पड़ते है और बिलासपुर छत्तीसगढ़ में). पिताजी सरकारी कर्मचारी थे, ‘कोल् माइंस’ से लेकर ‘स्टोर बिल्स’ तक में एक ‘अकाउंटेंट’ की हैसियत उन्होंने अपनी मेहनत, बल, बुद्धि और विवेक से अर्जित की थी, वो अपने डिपार्टमेंट का प्रमुख चेहरा थे, उनके बिना ‘अकाउंट’ में ‘काउंट’ करने वाला कोई और नहीं था इसलिए कार्यालय के सारे ‘फ्रंट ऑफिस’ वाले काम वो ही करते और मेरे कॉमिक्स का कलेक्शन उनके कारण ‘दिन दूनी रात चौगुनी’ तरक्की कर रहा था क्योंकि उनके ‘टूर’ और मेरी कॉमिक्स का एक अनोखा रिश्ता बन गया था. इस बार छुट्टियाँ भी थी, ना स्कूल ना कोई परीक्षा. मैंने जिद कि की मुझे भी ले चलो और एक 11 साल के बच्चे को भला क्या परेशानी हो सकती है सँभालने में सोच कर पिताजी ने ज्यादा ना नुकर नहीं की और माताजी भी उनकी बात काट नहीं पाई.
अमलाई स्टेशन पर रात्रिकालीन ट्रेन का हम दोनों स्टेशन के कंक्रीट के सीट पर बैठ कर इंतज़ार कर रहे थे पर 2.30 वाली ट्रेन ‘सारनाथ एक्सप्रेस’ सुबह 4.30 बजे के आस पास आई, मैं ‘बाबा’ की गोदी में ही सो गया और जब आँख खुली तो खुद को ट्रेन में पाया, उस ज़माने में कोई रिजर्वेशन वाला ‘टंटा’ नहीं था जब आपको 250 किलोमीटर की यात्रा करनी हो, अलबत्ता बच्चे को कोई न कोई तो जगह दे भी देता है, दुसरे शायद तब लोग इतने संकीर्ण विचारों वाले भी नहीं थे. जहाँ जाना हो भाई मिल बाँट कर, खाते पीते पहुँच ही जाते थे. खैर, कटनी स्टेशन से हमने दूसरी ट्रेन पकड़ी और जबलपुर रवाना हो गए. वहां एक होटल में रूम लिया, खाया पिया और मस्त आराम (काम तो आज होने से रहा, पहले से ही लेट हो चुके थे). शाम को पिताजी मुझे बाज़ार ले गये, वहां मैंने आइसक्रीम खाई और पिताजी कुछ खाना होटल से पैक कराने के लिए चल पड़े. एक कॉमिक्स प्रेमी के अंदर उस समय ‘जेम्स बांड’ जाग गया और कोई भी कॉमिक्स प्रेमी या पाठक इसे ‘रिलेट’ कर पायेगा. ये आँखे 360 डिग्री पर घूम रही थी की कहीं तो दिखे ‘कॉमिक्स की दुकान’, वैसे पिताजी मुझे बोल चुके थे की कॉमिक्स स्टेशन से ही मिलेगी लेकिन मन नहीं मान रहा था. रह रह कर ‘नागराज और ध्रुव’ मेरी नज़रों के सामने मानो आकर कह रहें हो – ‘अरे भाई राजनगर को तबाह होने से अब तू ही बचा सकता है, जल्दी से मुझे खरीद’. आखिरकार एक चौराहे पे मुझे एक दुकान दिख ही गई, छोटी सी उस दुकान पर लटकती कॉमिक्स मुझे आवाज़े लगा रही थी ‘जल्दी आ, कब आएगा निष्ठुर’. खाना ‘पैक’ होते होते पिताजी मेरी जिद के आगे झुक ही गये और अंततः मेरा आगमन उस ‘लकड़ी के खिड़की’ पर हुआ जो दुकान तो थी पर बड़ी छोटी सी लेकिन जो वहां रखा था ‘हे देव कालजयी’ किसी भी बेशकीमती खज़ाने से उसकी तुलना करना एक अपमान जैसा था.
मैंने आते ही तपाक से कहा नया सेट दिखाओ राज कॉमिक्स का!, कॉमिक्स का अंबार मेरे सामने लगा दिया गया. मैं सरसरी निगाहों से सभी पर नज़र मारने लगा लेकिन वो नहीं मिला जिसकी मुझे तलाश थी, समय बीतता जा रहा था, रात भी हो रही थी. दुकान वाले ने भी हमें चेताया की जल्दी छांट लो, रात को पैदल घूमना सही नहीं है यहाँ. मैंने पुछा ‘राजनगर की तबाही’ कहाँ है? उसने प्रतिउत्तर में जवाब दिया – ‘वो जितनी आई थी सब बिक गई है, और कुछ ले लो’. अब इतना समय व्यर्थ करने के बाद खाली हाँथ आना भी सही नहीं है, बंडल से मैंने ‘खरोंच’ अलग रखी थी. दुकान वाले ‘भैया’ ने भी यही कहा – ‘ई लै जाओ, एमें भी दुई ठो हीरो है, सब बच्चा लोग यही ले रहें है’. मुझे भी ये सही लगा, साथ में एक ‘ट्रेडिंग कार्ड’ भी मिल रहा था और कॉमिक्स का आवरण भी बड़ा ‘धमाकेदार’ लग रहा था. परमाणु के एक विलेन ‘वृक्षा’ को पीटता हुआ ये नया हीरो ‘तिरंगा’ और परमाणु का गमलों से निकले ‘बेलों’ द्वारा बांधा जाना बड़ा ही शानदार लग रहा था एवं साथ में तिरंगा की उड़ती हुई ‘ढाल’ जो वृक्षा से टकरा कर उपर निकल रही है और उसके नीचे ‘नागराज ईयर 1996’ का प्रतीक चिन्ह, ये सब अब मुझे मोहित कर रहा था, ‘राजनगर की तबाही’ ना मिलने का गम अब मैं भूलता जा राहा था और इस तरह आखिरकार मैंने भी ‘मनु की खरोंच’ खरीद ही डाली.
होटल के कमरे में घुसते ही मैं कॉमिक्स पर टूट पड़ा, बड़ी मुश्किल से पिताजी ने समझा बुझा कर मुझे खाना खिलाया और उसके बाद तो बस मैं, तिरंगा और परमाणु ने ठान लिया की आज तो हम लोग ‘खरोंच आर्मी’ का मीटर डाउन करके ही रहेंगे. इस कॉमिक्स का हर एक पैनल खूबसूरत है, आज अगर कॉमिक्स इंडस्ट्री में अगर ‘मनु’ जी के इतने प्रसंशक है तो उसका एकमात्र कारण उनके द्वारा किया गया उनका जबरदस्त और जीवंत आर्टवर्क है. आप इस कॉमिक्स में पाएंगे की परमाणु ही नहीं अपितु तिरंगा को भी उन्होंने कितना परफेक्ट बनाया है और हनीफ़ जी ने कहानी के साथ पूरा न्याय किया है क्योंकि भले ही कॉमिक्स परमाणु की है लेकिन तिरंगा का भी मज़बूत पक्ष इसमें दिखाया गया है एवं दोनों की भूमिका बराबर है. सोने पे सुहागा था इसमें परमाणु के दो विलेन्स का एक साथ दिखना जो ‘वृक्षा’ और ‘मैडम कोल्ड’ के नाम से जाने जाते है. इसका कुछ श्रेय जायेगा ‘मैं कॉमिक्स हूँ अथार्थ श्री संजय गुप्ता जी’ और राज कॉमिक्स के ‘संपादक’ श्री मनीष गुप्ता जी को भी.
रात भर में मैंने कॉमिक्स को पूरा पढ़ डाला, परमाणु और तिरंगा की तगड़ी टीम ने सभी अपराधियों के होश ठिकाने लगा दिए थे और कॉमिक्स के साथ पाया गया ‘ट्रेडिंग कार्ड’ बेहद ही उम्दा तरीके से ‘बुकमार्क’ के काम आ रहा था. थोड़ा उपर से झाँकता हुआ ‘तिरंगा और परमाणु’ का चेहरा मेरे नज़रों से ओझल हो रहा था, शायद अब नींद आ रही थी पर इस 2इन1 की अमिट छाप खासकर मनु सर के आर्टवर्क के कारण आज भी मेरे ज़ेहन में बिलकुल ताज़ा है और हमेशा रहेगी. अब हनीफ़ जी के कुछ चंद पंक्तियों के साथ इति करूँगा –
देश की रक्षा के लिए लेकर निकलते है जो जान हंथेली पर, कहाँ लिखा होता है उनका नाम गद्दारों की गोली पर !…..”
मिलता हूँ अगले संस्मरण में क्योंकि अभी ‘राजनगर की तबाही‘ बाकी है !! – कॉमिक्स बाइट !!
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