सेनापति राय कचाग (Senapati Ray Kachag)
सुप्रतिम जी इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में पीएचडी कर रहे हैं , साथ ही साथ वें उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में शिक्षाविद और प्रशासक की भूमिका भी निभा रहे है। उत्तर पूर्वी शहर अगरतला में जन्मे, एक कॉमिक बुक प्रेमी और युवा साहित्य के प्रति रुझान रखने वाले सुप्रतिम जी भारत के उत्तरी भाग और पूर्वी भाग के साहित्य/कॉमिक बुक प्रकाशकों से समान रूप से जुड़े हुए है। सुप्रतिम जी हिंदी, बंगाली, मराठी और अंग्रेजी बोलने में सक्षम है, तथा वह अपने विचार और ज्ञान से देश के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय युवा साहित्य और कॉमिक बुक उद्योग में योगदान करने की कोशिश कर रहे हैं।
सेनापति राय कचाग (Senapati Ray Kachag)
भारत के इतिहास में यूँ तो बहुत सी कॉमिकें बनी हैं पर ये कहानी हैं भारत के तीसरे सबसे छोटे राज्य ‘त्रिपुरा’ के गौरवशाली इतिहास की और उसके “सेनापति राय कचाग” के पराक्रम की जिसे मूल भारत के इतिहास में वह जगह कभी न मिली जिसके वो हकदार थे। त्रिपुरा भले ही सन 1949 से भारत के अंतर्गत हुआ पर महाभारत से लेकर सम्राट अशोक के अध्यादेश में उसका ज़िक्र एक स्वाधीन एवं समृद्धशाली देश के रूप में पाया जाता हैं। इस कहानी का वर्णन शुरू होता है सन 1490 में, त्रिपुरा के सिंहासन में विराजमान थे महाराज धन्यमाणिक्य, सिंहासन में होते हुए भी वह राजपाट संभालने में नाकारा और कुछ कुटिल सेनापतियों के बीच फंसे हुए थे। इसी दौरान एक छोटे से रियांग उपजाति के गांव में पल रहा होता है इस कहानी का नायक – “राय कचाग“।
राय कचाग के गांव में कुकी सम्प्रदाय के उपजातियों का आक्रमण होता रहता था और रियांग गांव वालो के पास इसका कोई हल नहीं होता है। इसी दौरान राय कचाग के साहस और योजना के चलते एक बार फिर रियांग सम्प्रदाय ने अत्याचारी कुकियों को खदेड़ दिया और राय कचाग राजा धन्यमाणिक्य के सेना में दाखिल होने का सपना देखने लगाता है। अपने रणकौशल और बहादुरी से उसने सेना में न सिर्फ जगह बनायीं बल्कि दो बार महाराज के प्राण रक्षा कर प्रधान सेनापति का पद भी अर्जित किया। महाराज धन्यमाणिक्य को हमेशा दोनों तरफ से परेशानियां झेलनी पड़ती, एक तरफ अराकान का राजा मेंग उसे परेशान करता वही बंगाल के गौड़ के सुल्तान से भी उन्हें समय समय पे लोहा लेना पड़ता। ऐसे में गौड़ के सुल्तान के चापलूस बारह विद्रोही जमींदार को परास्त करके राय कचाग न सिर्फ उस समय की बड़ी बंदरगाह चट्टल (चटगांव) को हथिया लेता हैं पर विद्रोह का सर कुचलने में भी सक्षम होता हैं।
इसके कई साल बाद सन 1511 में जब चटगांव हथियाने के लिए बंगाल के नवाब अलाउद्दीन हुसैन शाह और अराकान के राजा मेंग ने फिर सर उठाया तो उस समय सेनापति राय कचाग ने उत्तर के थानसीगढ़ किले पर फतह हासिल की और कहा जाता है सरीसृप गोह ने उनको इस पहाड़ी किले को जीतने में मदद की थीं। फिर आता हैं सन 1513, जहाँ चटगांव के “सुल्तान परनाल खान ग़ौर” के सेनापति “गौर मल्लिक” के साथ मिल त्रिपुरा पे हमला बोलते हैं और इस युग्म आक्रमण से एक के बाद एक किले राय कचाग के हाथ से निकलते जाते है।
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गौर तलब हैं की महाराज धन्यमाणिक्य को स्वप्नादेश मिला था और उन्होंने चटगांव से देवी काली की मूर्ती मँगवा कर त्रिपुरेश्वरी मंदिर की स्थापना की थी जो आज भारत के 51 शक्तिपीठों में भी गिना जाता है। कहा जाता हैं ग़ौर की सेना इन मान्यताओं के साथ तंत्र मंत्र से भी खौफ खाती थी और उनके इस अंधविश्वास का फायदा उठाके और बांस के नरमुंडो से ध्यान भटका कर सेनापति राय कचाग फिर से उन किलों पर फतह हासिल करते हैं। उस दौरान गौर के नवाब अलाउद्दीन हुसैन शाह जो, अपने शक्तिशाली तोपों के लिए जाने जाते थे, विजय नद का इस्तेमाल करके कैलागढ़, विशालगढ़, छयगढ़ियाँ पर जीत हासिल की और तत्कालीन राजधानी रांगामाटिया की तरफ बढ़ने लगे।
कहा जाता हैं इस दौरान महान शिल्पी छविदास ने कालाझारी पर्वत में खुदाई करके बने हुए प्राचीन देवी देवताओं के मूर्तियों के नैन नक्श मूल भारत के निवासियों के अनुरूप ढालने की कोशिश की और इसी वजह से वहां के 37 मूर्तियों का स्वरुप पूर्वोत्तर के बाकी कलाकृतियों से अलग हैं और उसमे मिश्र रीति का असर दिखता हैं। आज वह स्थान देवतामुड़ा नाम से भारत में प्रसिद्द हैं। इस बीच महाराज की विश्वसनीय जादूगरनी बगलमा ने गोमती नदी के सहारे युद्ध जितने की योजना बनाने के लिए धन्यमाणिक्य को आश्वासन दिया और सेनापति राय कचाग के रण कौशल से दोबारा त्रिपुरी सेना गौर के सुल्तान को खदेड़ने में सफल हुए। इसी बीच छविदास को शिल्पी होने के नाते बेरोकटोक त्रिपुरा भ्रमण की अनुमति मिली पर प्राचीन कलाकृतियों के नैन नक्श बदलने का उन्हें और कोई अवसर नहीं दिया गया। ऐसे कलाकृतियां आज भी भारत का गौरव बढ़ा रही हैं, जिनमे छविमुड़ा जिसे पूर्वोत्तर का ऐमेज़ॉन कहा जाता हैं और उनकोटी जो भारत का सबसे बड़ा ‘बास रिलीफ’ हैं, इत्यादि प्रमुख हैं।
अंत में दिखाया गया हैं की नवाब हुसैन शाह के पसंदीदा तोप को विजय प्रतीक के रूप में राजधानी रांगा माटिया के बीचोबीच स्थापित किया जाता हैं, ये वही तोप हैं जो आप वर्तमान राजधानी अगरतला के कमान चौराहे पर देख सकते हैं। भारत और पूर्वोत्तर के इस अनूठे और गौरवशाली इतिहास के अनकहे-अनसुने पहुलओं से परदे उठाती यह कॉमिक अपने आप में किसी रिसर्च आर्टिकल से कम नहीं हैं और 28 ऐतिहासिक ग्रंथो के अध्यन के बाद इस कॉमिक को 56 पृष्ठों में पूर्ण रोमांच और कौतुकता के साथ समेटने के लिए कथाकार एवं चित्रकार श्री “अलक दासगुप्ता” जी की जितनी तारीफ की जाए कम हैं। आशा हैं पूर्वोत्तर के अनसुने, अनकहे इतिहास के ऊपर और भी कॉमिक्स हमें मिलते रहेंगे और इनका हिंदी और दूसरे क्षेत्रीय भाषाओँ में अनुवाद भी कभी जरुर होगा।
Very nyc
Thanks Pranaay Ji