मनु की ‘खरोंच’ से ‘राजनगर की तबाही’ तक! – भाग २
“मनु की खरोंच”
अभी तक आपने पिछले संस्मरण में पढ़ा की कैसे “राजनगर की तबाही” कॉमिक्स खरीदने से पहले मैंने ‘खरोंच‘ कॉमिक्स खरीद ली. जबलपुर नामक शहर में मैं गया तो ‘राजनगर की तबाही’ लेने था पर शायद ये ‘एडिसन जॉर्ज सर अका मनु जी‘ का ही बेमिसाल चित्रांकन था जिसने मुझे ‘खरोंच’ कॉमिक्स लेने को प्रेरित किया पर अभी सुबह का उजाला और ‘राजनगर’ तबाह होना बाकी था.

अगला दिन पिताजी का पूरा वकील के चैम्बर में ही बीता, कॉमिक्स मैं अपने साथ ले गया. वहां कार्य होता रहा और मैं ‘बोर’. खरोंच कॉमिक्स मैंने एक बार फिर पढ़ी, इंडियन कॉफ़ी हाउस के बड़ी बड़ी इडलियों और कॉफ़ी के एक दौर के बाद फिर पिताजी और वकील साहेब कार्य में व्यस्त हो गए और मैं उब गया. उस दिन और कुछ ना हुआ और पूरा दिन यूँ ही निकल गया.
मनु की ‘खरोंच’ से ‘राजनगर की तबाही’ तक! – भाग १ – पढ़ें

पिताजी ने मुझे सुबह आवाज देकर उठाया, होटल के खिड़की से लगा हुआ एक आम का पेड़ था. एक गिलहरी वहां उछल कूद कर रही थी. वह कभी डाली से खिड़की तक आती तो कभी छोटे छोटे हरे आमों को ओर लपक पड़ती. गिलहरी से लगाव इसलिए भी था या कहूँ है की इनकी कारस्तानियों का निरिक्षण करना मुझे बड़ा भाता, इसके पीछे मेरे आंचलिक क्षेत्र का महत्त्व है, पहाड़ों का दीवानापन या ‘कार्टूनिस्ट प्राण‘ का बनाया पात्र “पिंकी” जिसकी चंचलता का मैं कायल था और उसकी शैतान मित्र जिसका नाम ‘कुटकुट गिलहरी‘ था.
संस्मरण: पिंकी और कुट कुट गिलहरी – पढ़ें
पिताजी ने डपट लगाई, जल्दी ब्रश करो और तैयार हो जाओ, ट्रेन का समय हो चला है. स्टेशन पहुँच कर हमने टिकट लिया प्लेटफार्म 2 की ओर चल पड़े. प्लेटफार्म 2 पर सीढियों से होकर जाना था और टिकट काउंटर प्लेटफार्म 1 पर, कॉमिक्स की बड़ी दुकान भी प्लेटफार्म 1 पर (आज भी है पर शायद कॉमिक्स नहीं मिलती). पिताजी का हाँथ पकड़े मेरा नन्हा बाल मन अब जवाब दे गया. सीढियाँ चढ़ते हुए मैंने पिताजी से कहा की एक बार कॉमिक्स की दुकान का चक्कर लगा लें शायद ‘राजनगर की तबाही’ वहां मिल जाए पर पिताजी ना माने और ट्रेन का समय भी हो चला. एक A.H.W व्हीलर्स के हाथगाड़ी पर भी मैंने उछल कर निगाहें जमाई पर ये असफलता मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी. वाह रे बेदर्द दुनिया, ट्रेन आई और पिताजी के साथ हम कटनी की ओर रवाना हो गए.

आर्टवर्क: अनुपम सिन्हा
ट्रेन में मैंने पिताजी को बोल बोल कर परेशान कर दिया की आपने मुझे वो कॉमिक्स क्यूँ नहीं दिलाई, पिताजी ने ढाढ़स देते हुए कहा की कटनी भी बड़ा जंक्शन है, वहां एक बार देख लेंगे. ट्रेन का समय हो रहा था इसलिए जबलपुर में नहीं लिया, आगे देख लेंगे. एक पड़ोस में बैठे एक सज्जन मेरी और पिताजी की बातों को सुन रहे थे. मेरे आँखों के अश्रुधारा को उन्होंने देख लिया क्योंकि मेरे मन ने ये मान लिया था की अब तो ‘राजनगर’ मेरी आँखों से भी दूर होता जा रहा था जैसे जैसे जबलपुर पीछे छूटता जा रहा था. सज्जन ने अपनी खिड़की की सीट मुझे देते हुए कहा, पिताजी ठीक ही कह रहे है तुम्हारें, कॉमिक्स तुम्हें कटनी स्टेशन में भी मिल जाएगी, तब तक खिड़की पर बैठ कर बाहर के सुंदर दृश्यों का आनंद लो.
राजनगर की तबाही
पिताजी को कार्यालय का कुछ कार्य था कटनी में तो जबलपुर से कटनी तक का 91वें किलोमीटर का सफ़र कर हम कटनी जंक्शन तक पहुँच ही गए. शायद कोई फ़ास्ट पैसेंजर ट्रेन थी जी बीच के प्लेटफार्म पर रुकी थी, ट्रेन से उतरकर मैं और पिताजी गेट के तरफ चल पड़े तभी हमारे गिरगिट सरीखे निगाहों ने एक व्हीलर की दुकान ताड़ ली. मैंने फिर जिद पकड़ ली, एक बार तो जाना बनता था. पिताजी को इमोशनल ब्लैकमेल करने के बाद मैं उस दुकान पर पहुंचा. एक अधेड़ उम्र के महोदय समाचार पत्र पढ़ने में मशगूल थे, अपने गोल चश्में से उनकी आँखें एक एक शब्द को समाचार पत्र से अपने दिमाग में संकलित कर रही थी.
मैंने उनकी तंद्रा को भंग करते हुए पूछा – राज कॉमिक्स है?
उनका जवाब आया – हाँ है!
कॉमिक्स का बंडल उठा कर उन्होंने मेरे सामने रखा और फिर मुझे कुछ समझ नहीं आया, पहली कॉमिक्स ही ‘राजनगर की तबाही’ थी. अंग्रेजी में इसका एक शब्द है जो बिलकुल सटीक बैठता है ऐसे मौके पर उसे कहते है – “एड्रेनालाईन रश“, बिलकुल दिव्य, अद्भुद, अकल्पनीय!!

क्या यही स्वर्ग है? मुझ जैसे 11 वर्षीय बच्चे के लिए तो ये लगभग कुछ ऐसा ही दृश्य था. अपने नन्हे हांथो में उस कॉमिक्स को लेकर उसे उलट पलट कर देखना, वह क्षण बताया नहीं जा सकता और ना ही उसकी व्याख्या संभव है. मुझे कोई दूसरी कॉमिक्स दिखी भी नहीं, बस पिताजी से मैंने कहा ये चाहिए मुझे!!
हम्म, 25 रूपए! मूल्य थोड़ा ज्यादा है पिछली वाली तो 16 की थी, यहाँ आते आते मूल्य कैसे बढ़ गया. मेरे पास पिताजी के इस सवाल का कोई उत्तर ना था. वाकई में वर्ष 1996 में 25 रुपये हमारे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के बड़ी रकम थी. दुकानदार समझ गया की बात शायद ना बने तो उसने कॉमिक्स की प्रशंसा कर दी पिताजी के समक्ष – “बाबूजी, मोटी किताब है, पन्ने भी ज्यादा है, सब यही ले रहे है!”.

कॉमिक्स पैनल
राजनगर की तबाही
इस बात से मुझे भी थोड़ा बल मिला, एक बार राग और छेड़ दी मैंने, “बाबा प्लीज, ले दो ना, ये मुझे चाहिए”. अब पिताजी पिघल गए, अपने बच्चे की रोनी सूरत भला कोई कब तक देखता और फिर वो हुआ जिसकी आस लेकर मैंने ये सफ़र तय किया था, आखिरकार ‘राजनगर को तबाह’ होना ही था और होनी को भी शायद यही मंजूर था.
पिताजी ने रुपये दे दिए दुकानदार को, कॉमिक्स मैंने हांथो में लपक ली एवं कटनी स्टेशन से हम अपने गंतव्य यानि होटल की तरफ बढ़ चले. बीच रस्ते में समोसे और चाय का भी एक दौर चला. पिताजी और मैं पैदल चलते चलते ही होटल पहुंचे, वो रेलवे स्टेशन के पास ही था. गर्मी काफ़ी थी सो कूलर वाला रूम चाहिए था, पर वो उपलब्ध नहीं था. होटल वाले ने AC वाला रूम दिखाया, पिताजी को पसंद आया पर उसका मूल्य बहुत ज्यादा था और मैं AC की कार्यशैली से मैं पूरी तरह से अनजान ना था पर एक कमरे में उपर चौकोर सा बक्सा मेरी समझ से उपर की बात थी (उसको विंडो AC कहते है, जो मुझे बाद में पता चला).

कॉमिक्स बाइट फैक्ट्स – ‘राजनगर की तबाही’ – पढ़ें
अब कॉमिक्स हाँथ में लगी, पता नहीं था की इस कॉमिक्स में ‘डबल स्प्रेड’ गेट फोल्ड कवर है, इसकी दिव्य सुंदरता बहुत ही जबरदस्त थी. आवरण तो डबल स्प्रेड था ही, बैक कवर भी ठीक वैसा ही था. अनुपम जी के लाजवाब चित्रांकन ने इस नन्हे पाठक को भी लाजवाब कर दिया था. बस दुःख बस एक ही था जहाँ ‘फ्री स्टीकर या ट्रेडिंग कार्ड मुफ्त’ लिखा जाना था वहां पर मात्र – “नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव का कॉमिक्स विशेषांक” लिखकर काम चलाया गया जबकि ‘राजनगर की तबाही’ राज कॉमिक्स के इतिहास का मील का वो पत्थर है जिसने कॉमिक्स को पढ़ने समझने की दिशा ही बदल दी.
अंदर के पृष्ठों को पलटते पलटते मैं भी राजनगर का हिस्सा हो गया और ये कॉमिक्स मेरे जीवन का किस्सा. इन अविस्मर्णीय क्षणों को शब्दों का रूप देना थोड़ा कठिन है, उस खुशी को बताना कठिन है. वो 25 रूपये आज के लाखों रुपयों से कम है और ये कॉमिक्स अनमोल. पिताजी का स्नेह और प्रेम है इसमें.
आज इतने साल बाद ये कॉमिक्स अपने मौलिक संस्करण में कई जगह उपलब्ध है और सभी मित्र इस घर बैठे प्राप्त भी कर सकते है, जिन दिक्कतों का सामना मुझे करना पड़ा इसे प्राप्त करने में, वो आज के दौर में होना बड़ा मुश्किल है. कॉमिक्स आर्डर करने के लिए लिंक पर क्लिक कीजिये – राज कॉमिक्स
बहुत जल्द हम इस कॉमिक्स का रिव्यु भी लेकर आएंगे, अब आज्ञा दीजिएगा, आभार – कॉमिक्स बाइट!
क्रेडिट्स: Raj Comics
टिनटिन और गुलामों के सौदागर
Pingback: कॉमिक्स का उचित मूल्य क्या होना चाहिए? (What should be the fair price of comics?) - Comics Byte