अलविदा पदमश्री नारायण देबनाथ! (Goodbye Padmashree Narayan Debnath)
कॉमिक्स पढ़ने का कीड़ा बचपन में जाग चुका था, रंग-बिरंगी कहानियों की दुनिया इतनी पसंद थीं की उनसे बाहर निकलने का मन ही नहीं होता था और मेरा बस चले तो आज भी मैं सारा दिन बस चित्रकथाओं के संसार में डूबा रहूँ। लेकिन कथनी और करनी में अंतर होता हैं और युवावस्था में कई जिम्मेदारियों का बोझ भी होता हैं, हालाँकि बचपन इससे बिलकुल उलट एवं बचपन में सीखीं-पढ़ी गई बातें बड़े होकर भी आपके मस्तिस्क में ताज़ा रहती हैं और ऐसी ही कुछ यादें मेरे मन के कोने में भी धूमिल सी पड़ी सुस्ता रही थीं पिछले हफ्ते तक जब तक एक दुखद खबर ने उन्हें झंझोड़ ना दिया। 18 जनवरी 2022 को जब यह पता चला की पदमश्री अवार्डी और भारत के बेहद प्रसिद्ध कॉमिक बुक क्रिएटिव श्री नारायण देबनाथ जी अब इस लोक को छोड़कर परमपिता के चरणों में लीन हो गए हैं। इस दुखद घटना ने काफी पीड़ा दी और मन शोकाकुल हो उठा, अब भगवान से यही प्रार्थना हैं की उन्हें उनके समाज में किये गए योगदान एवं अपने कार्यों के लिए हमेशा याद किया जाए। जैसे अपनी चित्रकथाओं के माध्यम से उन्होंने हम पाठकों को सर्वथा हंसाया-गुदगुदाया हैं, वैसे ही प्रभु उन्हें परम शांति एवं मोक्ष प्रदान करें।
श्री नारायण देबनाथ जी का जन्म कोलकाता (वेस्ट बंगाल) में हुआ और युवा होते ही उन्होंने अपना कार्य प्रकाशन ‘देव साहित्य कुटीर’ में प्रकाशित करना शरू कर दिया जिसमें जासूसी कहानियों के साथ पाश्चात्य अनुवादित कहनियाँ भी होती। मैंने उनकी ज्यादा चित्रकथाएँ और कॉमिक स्ट्रिप तो नहीं पढ़ी लेकिन मेरा जन्म एक बंगाली परिवार में हुआ और मेरी माताजी तो कोलकाता में ही पली बढ़ी, ऐसे में उनका बचपन भी इन्हीं पत्रिकाओं को पढ़कर बीता। बिलासपुर (छत्तीसगढ़) आने के बाद भी उन्होंने इस पढ़ने वाली आदत को नहीं छोड़ा और यह उनकी शादी के बाद भी जारी रहा। पिताजी जहाँ दिल्ली के जासूसी कहानियों के नॉवेल, चंदामामा और इंद्रजाल कॉमिक्स के प्रसंशक रहें वहीँ माताजी आनंदमेला, नॉबोकोल्लोल और सुखतारा पत्रिकाओं को बांग्ला में खास बिलासपुर से मंगवाती थीं। शायद इसी कारण पढ़ने का यह शौक भी मुझे बचपन से लग चुका था लेकिन उस ज़माने में सभी शौक पूरे नहीं होते थे और मध्यमवर्गीय परिवार में परिवार के साथ पत्रिका और कॉमिक्स जैसे मुक्तहस्त रूचि को पालना बड़ा ही मुश्किल था। मध्य प्रदेश में रहने के कारण मैंने हमेशा हिंदी से जुड़ाव महसूस किया जिसकी हमारे क़स्बे में कोई कमी नहीं थीं लेकिन जब भी नानी के घर बिलासपुर जाना होता वहां बांग्ला भाषा की पत्रिकाओं से दो-चार होना पड़ता जिसे पढ़ पाना मेरे लिए टेढ़ी खीर ही था।
माताजी बचपन से ही यह समझ जाती की मेरा शौक पत्रिका में ना होकर उसमें छापी गई कार्टून स्ट्रिप में हैं और ‘हांदा-भोंदा’ नामक दो हास्य किरदारों की कहनियाँ हम बच्चे बड़े मज़े से आनंद लेकर उनसे सुनते, कभी-कभी नानी भी हम बच्चों को वह कहानियाँ बांग्ला भाषा में समझती। वह मेरा पहला साक्षत्कार था ग्रेट नारायण दा से और जो दूसरा सबसे प्रिय किरदार था मेरा उनके द्वारा गढ़ा गया वो था ‘बाटुल दी ग्रेट’। एक पतले-दुबले हाँथ पैर वाला बंदा लेकिन चौड़े कंधें और पुष्ट सीने के साथ बदमाशों की वह पिटाई करता की भाईसाहब बस मजा ही आ जाता। बस इन्हीं कार्टून स्ट्रिप्स को पढ़ने के चक्कर में मैंने बांग्ला भाषा आधी-अधूरी पढ़नी सीखी क्योंकि जब भी यह नए अंक घर आते तो सबसे पहले झपट्टा मार कर मैं इन्हें ही पढ़ने की कोशिश करता। यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा और हाल ही में पिछले वर्ष मुझे उनके अन्य किरदार ‘नोंटे-पोंटे’ के अंग्रेजी संस्करण देखने का भी मौका मिला। सिर्फ एक ही बात का अफ़सोस हैं की इन्हें भारत के हिंदी पाठक वर्ग से दूर रखा गया जो अब भी शायद संभव नहीं दिखता।
पिछले वर्ष जब उन्हें पदमश्री से सम्मानित किया गया तो मन गर्व से भर उठा एवं उनके साथ चंदामामा के आधारस्तंभ रहें आर्टिस्ट ‘शंकर’ को पदमश्री मरणोपरांत दिया गया। ग्रेट कार्टूनिस्ट प्राण के बाद यही दो कॉमिक बुक क्रिएटिव रहें जिन्हें भारत का चौथे सर्वोच्च नागरिक का पुरूस्कार प्राप्त हुआ पर सवाल एक ही हैं? पहले क्यूँ नहीं? क्या इनका समाज में योगदान कोई मायने नहीं रखता एवं कई दशकों में किसी भी सरकार ने इन्हें कुछ माना ही नहीं? अपनी आत्ममुघ्द्ता में खुद को ‘रत्न’ देने वाले नेताओं को समाज के मार्मिक पक्ष को अपने व्यंग्य से प्रकाश डालने वाले आर्टिस्ट नजर नहीं आएं? काश ये कुछ दशक पहले होता तो शायद आज कई करोड़ लोग इन्हें पढ़ रहें होते। पदमश्री के अलावा उन्हें साहित्य अकादमी पुरुस्कार और बंग भूषण पुरुस्कारों से भी अलंकृत किया जा चुका हैं।
नारायण जी ने कई किरदारों की रचना की जिनमें हांदा-भोंदा, बाटुल दी ग्रेट, नोंटे-फोंटे, सुट्की-मुट्की, पोटोलचाँद द मैजिशियन और बहादुर बेराल काफी प्रसिद्ध रहें एवं इन्हें कॉमिक्स से लेकर एनीमेशन तक में पाठकों के समक्ष लाया गया। उन्होंने 50+ से ज्यादा वर्षों तक कार्टून-स्ट्रिप हांदा-भोंदा को बनाया और एक ही किरदार पर लगातार इतने वर्षों तक कार्य करने वाले वह भारत के पहले एवं महानतम कॉमिक बुक आर्टिस्ट बने। हॉस्पिटल के बिस्तर में बैठ कर अपने कांपते हांथों से उन्होंने ‘बाटुल दी ग्रेट’ का जो बेहतरीन इलस्ट्रेशन बनाया वह बेहद ही भावुक और ग़मगीन कर देने वाला था। उन्हें मात्र बंगाल ही नहीं अपितु संपूर्ण भारतवर्ष याद रखेगा एवं इन शानदार-सदाबहार कृतियों के लिए वह इस संसार में हमेशा अमर रहेंगे, अलविदा पदमश्री नारायण देबनाथ!, आपको कॉमिक बाइट की ओर से अश्रुपूर्ण एवं भावभीनी श्रद्धंजलि।