राज कॉमिक्स संस्मरण – विषनखा और ज़हरीले सिक्के – तिरंगा (Raj Comics Memoirs – Vishnakha And Zehreelay Sikke – Tiranga)
कॉमिक्स बाइट प्रस्तुत करते हैं दिल्ली शहर के रक्षक और राज कॉमिक्स का गर्व – “तिरंगा” के कॉमिक्स ज़हरीले सिक्के पर विशेष संस्मरण! (Comics Byte Presents A Special Memoir On The Protector Of The City Delhi And The Pride Of Raj Comics “Tiranga”, Based On Comics Zehreelay Sikke!)
तिरंगा – विषनखा और जहरीले सिक्के ( Tiranga – Vishnakha And Zehreelay Sikke): राज कॉमिक्स के तिरंगा सीरीज में प्रकाशित हुई इन काॅमिक्स के पीछे एक कहानी जुड़ी है। बात 1997 की है जब राज कॉमिक्स के सेट लगातार प्रकाशित होते जा रहे थे। नागराज जहाँ अपने सपनों के मंदिर और उसके साथ जुड़े एक खजाने की खोज के बाद ‘महानगर’ नाम के शहर पर ठहर चुका था, तो सुपर कमांडो ध्रुव भी राजनजर में अपराधियों और व्यक्तिगत जीवन की उठा पटक में फंसा हुआ था जहां उसकी प्रेयसी नताशा एक बार फिर से रोबो आर्मी की कमांडर बन चुकी थी और अब उसे जाना था मंगल ग्रह। इनके ही साथ आ रही थी राज कॉमिक्स के अन्य नायकों की काॅमिक्स भी जहां भोकाल टकरा रहा था विकासनगर के उपर उठते युद्ध के बादलों से जहाँ रानी चंदा रच रही थी एक ‘विकटव्यूह’, तो ‘फ़र्ज़ की मशीन’ यानि के इंस्पेक्टर स्टील भी आने वाला था “कानून का सिपाही” नाम से अपने पहले ‘राज कॉमिक्स विशेषांक’ को लेकर। ‘मुंबई का बाप’ डोगा लगा हुआ था एक कायर इंस्पेक्टर मे एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही की भूमिका को प्रबल करने में तो वहीं ‘दिल्ली की छत’ परमाणु से टकरा गया केमेस्ट्री में विशारद ‘मिस्टर रसायन’ से, जो उसको बदलने जा रहा था कांच के परमाणु में! बचा खुचा एक्शन जंगल के रक्षक भेड़िया और जिंदा मुर्दा एंथोनी ने संभाल रखा था, बांकेलाल के काॅमिक्स बदस्तूर हर सेट मे आ रहे थे एवं रही सही काॅमेडी की कसर फाइटर टोड्स और गमराज के कंधो पर बराबर बांटी जा रही थी। एक राज काॅमिक्स फैन के लिए वर्ष 1997 स्वर्णिम दौर था।
इन सभी नायकों के साथ तिरंगा भी पाठकों के मध्य अपनी जगह बना रहा था। धरातल पर लिखी कहानियों और काॅमिक बुक लीजेंड श्री दिलीप चौबे जी के आर्टवर्क के साथ उसे भी प्रशंसकों का बेहतर प्रतिसाद प्राप्त हो रहा था। इस समय के पहले तक आर्टिस्ट मिलिंद मिसाल जी और विठ्ठल कांबले जी की जोड़ी तिरंगा के काॅमिक्स बना रही थी पर दिलीप जी के आते ही तिरंगा के फाइटिंग डायनामिक्स काफी बदल गए। मुझे स्वयं तिरंगा का यह वर्शन ज्यादा पसंद आया और जब विषनखा नामक काॅमिक्स का विज्ञापन देखा तो तिरंगा के साथ एक खतरनाक लेडी विलेन यानि की ‘खलनायिका’ को देखकर इस काॅमिक्स को पढ़ने की इच्छा बड़ी बलवती हो उठी थी। कॉमिक्स का विज्ञापन था “ज़हरीले सिक्के”!
पिताजी कोल इंडिया के एकाउंट डिपार्टमेंट मे थे जिस कारण अकसर उन्हें हमारे टाउन अमलाई से उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) जाना पड़ता था जहाँ ऑफिस का हेडक्वार्टर था। जैसे मैंने पिछले संस्मरणों में भी बताया था की हमारे टाउन के मुकाबले वह एक बड़ा शहर था और बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के ए.एच.डब्लू वीलर्स का स्टाल भी बेहद बड़ा था। यह दूरी लगभग 180-200 किलोमीटर की थी जो अमूमन एक दिन में हो जाया करती और ऐसे मौकों पर पिताजी कोई अटैची ना लेकर अक्सर एक गांधी झोला इस्तेमाल किया करते।
रात काफी हो चुकी थी लेकिन नींद मेरे आखों से कोसो दूर थीं। मैं दिल थाम कर पिताजी का इंतजार कर रहा था। माताजी के कई बार कहने पर आंख बस लगी ही थी दरवाजे पर खटखटाने की ध्वनि सुनाई दी, मैं लपककर संकली खोलने पहुंचा क्योंकि मुझे पता था कि पिताजी कभी भी अपने टूर या मीटिंग से खाली हांथ नहीं आते पर इस बार कौन सी काॅमिक्स आने वाली थी मेरे हाथ में?
थके से पिताजी आकर कुर्सी पर बैठे। यह उनके आम दिनों से थोड़ा अलग लग रहा था। मैं भागकर उनके लिए एक गिलास पानी लेकर आया, माताजी भी उनके चहरे पर आते भावों को पहचान चुकी थी फिर भी उन्होंने बाबा को पहले हांथ मुंह धोकर आने को कहा और फिर खाने को परोसने की प्रक्रिया शुरू कर दी। मैं तब तक गांधी झोले की टोह ले चुका था, एक बार, दो बार, तीन बार पर एक पानी की बोतल और ऑफिस के कागज-फाइलों के अलावा वहां कुछ भी शेष नहीं था। यह 12 वर्षिय बालक के लिए निराशा भरे क्षण थे। मैं एक मध्यवर्गीय परिवार मे पला बढ़ा जहां जीवन बेहद सरल और सुगम हुआ करता था। मेरे पढ़ाई के प्रति रुझान को ना देखकर ही पिताजी ने काॅमिक्स पढ़ने की आदत लगवाई ताकि मेरी पढ़ने में कुछ तो रूचि जगे। पिछले कुछ वर्षों मे यह पहली बार हुआ जब काॅमिक्स नहीं आई! बाबा खाना खाने बैठे तो मम्मी ने पूछा दिन कैसा रहा, मीटिंग कैसी रही और यह भाव भी इतने थके से क्यों हैं? तब जाकर पिताजी ने बताया की शाम की ट्रेन लेट थीं और भीड़ भी काफी ज्यादा थी, घने जंगलों के बीच ट्रेन कम से कम पांच घंटे लेती ही है हमारे टाऊन तक पहुँचाने में। ट्रेन में पिताजी ने अपना झोला एक हुक पर टंगा रखा था एवं बीच में किसी स्टेशन पर वह थोड़ा चाय के लिए उतरे तो उतने में किसी ने झोले से पैसे और काॅमिक्स गायब कर दी। सच कहता हूँ पैसे का मुझे पता नहीं लेकिन काॅमिक्स चोरी होने की बात सुनकर मेरे सीने में सांप लोट गए, बचपन में तब बुरे शब्दों का ज्ञान ना था पर फिर भी उस चोर को मैंने जमकर मन ही मन खूब कोसा। रात्रिभोज के बाद मैंने बाबा से काॅमिक्स का नाम पूछा तो उन्होंने बताया की किसी नए हीरो की काॅमिक्स थी और काॅमिक्स का कवर बेहद शानदार बना था, यह नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव तो बिलकुल नहीं थे क्योंकि मेरे साथ पिताजी भी काॅमिक्स पढ़ने के शौकीन थे और इन नायकों के नामों से वो अनभिज्ञ ना थे। और पूछने पर पता चला कि कोई लडकी और हीरो कवर पर बने थे और उस लडकी के हाथ में बड़े-बड़े नाखून थे। अगले दिन राज काॅमिक्स खंगालने पर मुझे ज्ञात हुआ कि यह तिरंगा सीरीज की ज़हरीले सिक्के या विषनखा काॅमिक्स हो सकती है जिसके विज्ञापन ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था। मेरी स्टाॅफ काॅलोनी में स्थित और घर से संचालित “सुमन लाइब्रेरी” में तिरंगा की ज़हरीले सिक्के आते-आते रह गई और बीते इतने वर्षों में कभी उसे दोबारा खरीदने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।
आज इतने वर्षों बाद जब देव काॅमिक्स स्टोर से राज कॉमिक्स बाय मनोज गुप्ता द्वारा प्रकाशित तिरंगा का जनरल सेट 3 प्राप्त हुआ तो मन वर्ष 1997 में दोबारा पहुंच गया, ये किक है नास्टैल्जिया की जो सलमान खान अपने फिल्म ‘किक’ में खोजते फिरते है! यह है मेरा बचपन, राज काॅमिक्स और पिताजी की यादें जेहन में कौंध उठी और एक टाईम ट्रैवल जैसा महसूस हुआ, जैसा मैं साल 1997 में हूँ यह सब मेरे सामने फिर से घटित हो रहा है। क्या लाजवाब अनुभूति है जिसे शब्दों में पिरोना कठिन है और ऐसे ही कितने अनगिनत किस्से जुड़े हैं काॅमिक्स के मेरे साथ और वर्तमान में जब उन पलों को याद करो तो मन आनंद से भर जाता है। मनोज गुप्ता जी का हृदय से साधुवाद कि उन्होंने तिरंगा के इन शानदार अंको को पुन: मुद्रित किया, मूल्य का पता नहीं पर ये अंक मेरे लिए तो अनमोल है।
पढ़ें: संस्मरण: खूनी खिलौने – सुपर कमांडो धुव (Memoir: Khooni Khilaune – Super Commando Dhruva)
अगर आपके भी ऐसे किस्से कहानियां है जो काॅमिक्स से जुड़ी हुई हैं तो हमसे अपने विचार अवश्य साझा करें। जुनून अभी जिंदा है! आभार – काॅमिक्स बाइट!!